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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला


उस दिन दिल्ली जा रहा था। खेतों में प्रकृति का महोत्सव हो रहा था। उगे-उभरे गेहूँ के खेत हरी मखमल के क़ालीन से और बीच-बीच में पका-पनपा ईख, सरसों की पीली छिटक तो मटर के तितलियों से होड़ बाँधते रंग-बिरंगे फूलों की बहार। देखो तो आँखें ठण्डी हों, सोचो तो दिमाग में कारीगरी के पौधे खिल जाएँ और समझो तो बस समझने को कुछ बाक़ी न रहे, जंगल का हर पत्ता एक उपन्यास हो रहा था।

इसी उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते रेल के डिब्बे में झाँका तो देखा मेरे सामनेवाले सज्जन अपने छोटे-से पानदान से निकालकर पान का टुकड़ा खा रहे हैं। अरे साहब, उन्होंने पान खाया और पानदान पर एक नन्हा-सा ताला लगाकर रख दिया।

मैं फिर अपने खेतों में उलझ गया और यों ही फिर डिब्बे में झाँका तो वही दृश्य कि उन्होंने पानदान निकाला, ताला खोलकर पान लगाया-खाया और सावधानी से ताला बन्द कर रख दिया।

क्या इस आदमी के इतने दुश्मन हैं कि इसे पान में भी विष्ण का भय है? या यह आदमी इतना संकीर्ण है कि अपना पानदान अपनों से भी अछूता रखना चाहता है? ये दो प्रश्न मन में उठे तो सही, पर इनका समाधान कैसे हो? यह लिपटी हुई जन्मपत्री खुले कैसे?

मैंने उस आदमी की आकृति का अध्ययन आरम्भ किया। उम्र कोई साठ साल, स्वास्थ्य साधारण, चेहरे पर कठोरता और रोब। मुझे लगा कि पानदान के ताले का मार्ग कहीं इधर ही है और तब मैंने उन्हें बातचीत की खराद पर चढ़ाया। पता चला कि हज़रत के घर में बेटे हैं, पोते हैं, पोतियाँ हैं, बहुएँ हैं, पेंशन आती है, घरवाली मर गयी है, बेटे मामूली हालत में हैं-पढ़ाने की बहुत कोशिश की, पर पढ़े ही नहीं कम्बख्त। आप भी मामूली उर्दु जानते हैं। पिछली लड़ाई में लड़े थे। कई इनाम मिले। अब रुपया सूद पर चलाते हैं।

इस जानकारी को मथकर मैंने यह सार निकाला। बूढा, अपत्नीक, फ़ौजी और सूदखोर। विष का इसे ख़तरा नहीं, लोभ और चिड़चिड़ेपन की तसवीर है यह ताला।

अब मुझे अपनी परीक्षा करनी थी। मैंने प्रश्न का बाण निशाने पर रखा–“मालूम होता है क़िब्ला, पोती-पोते बहुत तंग करते हैं। इस ताले से आपने उनका खूब इलाज किया है।"

बूढ़े की आवाज़ गले आते-आते रुकी तो मैंने सिसकारी दी, “सचाई यह है बड़े मियाँ कि बच्चों का हाथ पड़ने से पान का मज़ा किरकिरा हो जाता है।" बूढ़ेजी खुल पड़े, “बच्चे तो हैं ही साहब, पर बहुएँ उनसे भी बढ़कर शैतान की परकाला हैं। एक मिनिट चैन नहीं लेने देतीं, ज़रा आँख बची कि पान साफ़।"

मैं अपनी परीक्षा में पास हो गया था और अब बूढ़े में मुझे कोई दिलचस्पी न थी तो मैं फिर अपने खेतों में था और सोच रहा था. यह ताला बूढ़े के पानदान पर नहीं, जीवन के आनन्द-स्रोत पर ही लगा हुआ है।

मेरे गले में एक गुनगुनाहट आ समायी और उसमें से प्रस्फुटित हुई रवीन्द्रनाथ की वे पंक्तियाँ जिनका भाव है, “मैं पाप और कल्मष से अपने को बचाने के लिए, चारों ओर के द्वार बन्द कर बैठ गया। बाहर से सत्य-पुण्य ने पुकारा, द्वार बन्द है, कैसे हम तुझ तक आएँ?"

ठीक ही है, जो ताले में बन्द है, उस तक कोई कैसे पहुँचे? फिर यह कोई सत्य हो या पुण्य, आनन्द हो या रस।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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